महात्मा ज्योतिबा फुले

महात्मा ज्योतिबा फुले का जन्म 11 अप्रैल 1827 को पुणे में हुआ था। उनकी माता का नाम चिमणाबाई तथा पिता का नाम गोविन्दराव था। उनका परिवार कई पीढ़ी पहले माली का काम करता था। वे सातारा से पुणे फूल लाकर फूलों के गजरे आदि बनाने का काम करते थे इसलिए उनकी पीढ़ी ‘फुले’ के नाम से जानी जाती थी।
ज्योतिबा बहुत बुद्धिमान थे। उन्होंने मराठी में अध्ययन किया। वे महान क्रांतिकारी, भारतीय विचारक, समाजसेवी, लेखक एवं दार्शनिक थे। 1840 में ज्योतिबा का विवाह सावित्रीबाई से हुआ था।
महाराष्ट्र में धार्मिक सुधार आंदोलन जोरों पर था। जाति-प्रथा का विरोध करने और एकेश्वरवाद को अमल में लाने के लिए ‘प्रार्थना समाज’ की स्थापना की गई थी जिसके प्रमुख गोविंद रानाडे और आरजी भंडारकर थे।
उस समय महाराष्ट्र में जाति-प्रथा बड़े ही वीभत्स रूप में फैली हुई थी। स्त्रियों की शिक्षा को लेकर लोग उदासीन थे, ऐसे में ज्योतिबा फुले ने समाज को इन कुरीतियों से मुक्त करने के लिए बड़े पैमाने पर आंदोलन चलाए। उन्होंने महाराष्ट्र में सर्वप्रथम महिला शिक्षा तथा अछूतोद्धार का काम आरंभ किया था। उन्होंने पुणे में लड़कियों के लिए भारत की पहला विद्यालय खोला।
इन प्रमुख सुधार आंदोलनों के अतिरिक्त हर क्षेत्र में छोटे-छोटे आंदोलन जारी थे जिसने सामाजिक और बौद्धिक स्तर पर लोगों को परतंत्रता से मुक्त किया था। लोगों में नए विचार, नए चिंतन की शुरुआत हुई, जो आजादी की लड़ाई में उनके संबल बने।
इस महान समाजसेवी ने अछूतोद्धार के लिए सत्यशोधक समाज स्थापित किया था। उनका यह भाव देखकर 1888 में उन्हें ‘महात्मा’ की उपाधि दी गई थी। ज्योतिराव गोविंदराव फुले की मृत्यु 28 नवंबर 1890 को पुणे में हुई।
आरंभिक जीवन:
उनका जन्म 11 अप्रैल 1827 को सतारा महाराष्ट्र , में हुआ था. उनका परिवार बेहद गरीब था और जीवन-यापन के लिए बाग़-बगीचों में माली का काम करता था. ज्योतिबा जब मात्र एक वर्ष के थे तभी उनकी माता का निधन हो गया था. ज्योतिबा का लालन – पालन सगुनाबाई नामक एक दाई ने किया. सगुनाबाई ने ही उन्हें माँ की ममता और दुलार दिया. 7 वर्ष की आयु में ज्योतिबा को गांव के स्कूल में पढ़ने भेजा गया. जातिगत भेद-भाव के कारण उन्हें विद्यालय छोड़ना पड़ा. स्कूल छोड़ने के बाद भी उनमे पढ़ने की ललक बनी रही. सगुनाबाई ने बालक ज्योतिबा को घर में ही पढ़ने में मदद की. घरेलु कार्यो के बाद जो समय बचता उसमे वह किताबें पढ़ते थे. ज्योतिबा पास-पड़ोस के बुजुर्गो से विभिन्न विषयों में चर्चा करते थे. लोग उनकी सूक्ष्म और तर्क संगत बातों से बहुत प्रभावित होते थे.
उन्होंने विधवाओं और महिलाओं के कल्याण के लिए काफी काम किया। उन्होंने इसके साथ ही किसानों की हालत सुधारने और उनके कल्याण के लिए भी काफी प्रयास किये। स्त्रियों की दशा सुधारने और उनकी शिक्षा के लिए ज्योतिबा ने 1848 में एक स्कूल खोला। यह इस काम के लिए देश में पहला विद्यालय था। लड़कियों को पढ़ाने के लिए अध्यापिका नहीं मिली तो उन्होंने कुछ दिन स्वयं यह काम करके अपनी पत्नी सावित्री को इस योग्य बना दिया। उच्च वर्ग के लोगों ने आरंभ से ही उनके काम में बाधा डालने की चेष्टा की, किंतु जब फुले आगे बढ़ते ही गए तो उनके पिता पर दबाब डालकर पति-पत्नी को घर से निकालवा दिया इससे कुछ समय के लिए उनका काम रुका अवश्य, पर शीघ्र ही उन्होंने एक के बाद एक बालिकाओं के तीन स्कूल खोल दिए।
पेशवाई के अस्त के बाद अंग्रेजी हुकूमत की वजह से हुये बदलाव के इ.स. 1840 के बाद दृश्य स्वरूप आया. हिंदू समाज के सामाजिक रूढी, परंपरा के खिलाफ बहोत से सुधारक आवाज उठाने लगे. इन सुधारको ने स्त्री शिक्षण, विधवा विवाह, पुनर्विवाह, संमतीवय, बालविवाह आदी. सामाजिक विषयो पर लोगों को जगाने की कोशिश की. लेकीन उन्नीसवी सदिके ये सुधारक ‘हिंदू परंपरा’ के वर्ग में अपनी भूमिका रखते थे. और समाजसुधारणा की कोशिश करते थे. महात्मा जोतिराव फुले इन्होंने भारत के इस सामाजिक आंदोलन से महराष्ट्र में नई दिशा दी. उन्होंने वर्णसंस्था और जातीसंस्था ये शोषण की व्यवस्था है और जब तक इनका पूरी तरह से ख़त्म नहीं होता तब तक एक समाज की निर्मिती असंभव है ऐसी स्पष्ट भूमिका रखी. ऐसी भूमिका लेनेवाले वो पहले भारतीय थे. जातीव्यवस्था निर्मूलन के कल्पना और आंदोलन के उसी वजह से वो जनक साबीत हुये.
महात्मा फुले इन्होंने अछूत स्त्रीयों और मेहनत करने वाले लोग इनके बाजु में जितनी कोशिश की जा सकती थी उतनी कोशिश जिंदगीभर फुले ने की है. उन्होंने सामाजिक परिवर्तन, ब्रम्ह्नोत्तर आंदोलन, बहुजन समाज को आत्मसन्मान देणे की, किसानो के अधिकार की ऐसी बहोतसी लढाई यों को प्रारंभ किया. सत्यशोधक समाज ये भारतीय सामाजिक क्रांती के लिये कोशिश करनेवाली अग्रणी संस्था बनी. महात्मा फुले ने लोकमान्य टिळक , आगरकर, न्या. रानडे, दयानंद सरस्वती इनके साथ देश की राजनीती और समाजकारण आगे ले जाने की कोशिश की. जब उन्हें लगा की इन लोगों की भूमिका अछूत को न्याय देने वाली नहीं है. तब उन्होंने उनपर टिका भी की. यही नियम ब्रिटिश सरकार और राष्ट्रीय सभा और कॉग्रेस के लिये भी लगाया हुवा दिखता है.
महात्मा फुले ने अपनी पत्नी सावित्रीबाई फुले को पढ़ने के बाद १८४८ में उन्होंने पुणे में लडकियों के लिए भारत की पहली प्रशाला खोली | २४ सितंबर १८७३ को उन्होंने सत्य शोधक समाज की स्थापना की | वह इस संस्था के पहले कार्यकारी व्यवस्थापक तथा कोषपाल भी थे |इस संस्था का मुख्य उद्देश्य समाज में शुद्रो पर हो रहे शोषण तथा दुर्व्यवहार पर अंकुश लगाना था | महात्मा फुले अंग्रेजी राज के बारे में एक सकारात्मक दृष्टिकोण रखते थे क्युकी अंग्रेजी राज की वजह से भारत में न्याय और सामाजिक समानता के नए बिज बोए जा रहे थे | महात्मा फुले ने अपने जीवन में हमेशा बड़ी ही प्रबलता तथा तीव्रता से विधवा विवाह की वकालत की | उन्होंने उच्च जाती की विधवाओ के लिए १८५४ में एक घर भी बनवाया था | दुसरो के सामने आदर्श रखने के लिए उन्होंने अपने खुद के घर के दरवाजे सभी जाती तथा वर्गों के लोगो के लिए हमेशा खुले रखे.
ज्योतिबा मैट्रिक पास थे और उनके घर वाले चाहते थे कि वो अच्छे वेतन पर सरकारी कर्मचारी बन जाए लेकिन ज्योतिबा ने अपना सारा जीवन दलितों की सेवा में बिताने का निश्चय किया था | उन दिनों में स्त्रियों की स्तिथि बहुत खराब थी क्योंक घर के कामो तक ही उनका दायरा था | बचपन में शादी हो जाने के कारण स्त्रियों के पढने लिखने का तो सवाल ही पैदा नही होता था | दुर्भाग्य से अगर कोई बचपन में ही विधवा हो जाती थी तो उसके साथ बड़ा अन्याय होता था | तब उन्होंने सोचा कि यदि भावी पीढ़ी का निर्माण करने वाली माताए ही अंधकार में डूबी रहेगी तो देश का क्या होगा और उन्होंने माताओं के पढने पर जोर दिया था | उन्होंने विधवाओ और महिला कल्याण के लिए काफी काम किया था | उन्होंने किसानो की हालत सुधारने और उनके कल्याण के भी काफी प्रयास किये थे | स्त्रियों की दशा सुधारने और उनकी शिक्षा क्व लिये ज्योतिबा और उनकी पत्नी ने मिलकर 1848 में स्कूल खोला जो देश का पहला महिला विद्यालय था | उस दौर में लडकियों को पढ़ाने के लिए अध्यापिका नही मिली तो उन्होंने अपनी पत्नी सावित्रीबाई को पढाना शुरू कर दिया और उनको इतना योग्य बना दिया कि वो स्कूल में बच्चो को पढ़ा सके |
ज्योतिबा यह जानते थे कि देश व समाज की वास्तविक उन्नति तब तक नहीं हो सकती, जब तक देश का बच्चा-बच्चा जाति-पांति के बन्धनों से मुक्त नहीं हो पाता, साथ ही देश की नारियां समाज के प्रत्येक क्षेत्र में समान अधिकार नहीं पा लेतीं । उन्होंने तत्कालीन समय में भारतीय नवयुवकों का आवाहन किया कि वे देश, समाज, संस्कृति को सामाजिक बुराइयों तथा अशिक्षा से मुक्त करें और एक स्वस्थ, सुन्दर सुदृढ़ समाज का निर्माण करें । मनुष्य के लिए समाज सेवा से बढ़कर कोई धर्म नहीं है । इससे अच्छी ईश्वर सेवा कोई नहीं । महाराष्ट्र में सामाजिक सुधार के पिता समझे जाने वाले महात्मा फूले ने आजीवन सामाजिक सुधार हेतु कार्य किया । वे पढ़ने-लिखने को कुलीन लोगों की बपौती नहीं मानते थे । मानव-मानव के बीच का भेद उन्हें असहनीय लगता था ।
दलितों और निर्बल वर्ग को न्याय दिलाने के लिए ज्योतिबा ने ‘सत्यशोधक समाज’ स्थापित किया। उनकी समाजसेवा देखकर 1888 ई. में मुंबई की एक विशाल सभा में उन्हें ‘महात्मा’ की उपाधि दी। ज्योतिबा ने ब्राह्मण-पुरोहित के बिना ही विवाह-संस्कार आरंभ कराया और इसे मुंबई हाईकोर्ट से भी मान्यता मिली। वे बाल-विवाह विरोधी और विधवा-विवाह के समर्थक थे। वे लोकमान्य के प्रशंसकों में थे।
कार्य और सामाजिक सुधार:
• इनका सबसे पहला और महत्वपूर्ण कार्य महिलाओं की शिक्षा के लिये था; और इनकी पहली अनुयायी खुद इनकी पत्नी थी जो हमेशा अपने सपनों को बाँटती थी तथा पूरे जीवन भर उनका साथ दिया।
• अपनी कल्पनाओं और आकांक्षाओं के एक न्याय संगत और एक समान समाज बनाने के लिये 1848 में ज्योतिबा ने लड़कियों के लिये एक स्कूल खोला; ये देश का पहला लड़कियों के लिये विद्यालय था। उनकी पत्नी सावित्रीबाई वहाँ अध्यापान का कार्य करती थी। लेकिन लड़कियों को शिक्षित करने के प्रयास में, एक उच्च असोचनीय घटना हुई उस समय, ज्योतिबा को अपना घर छोड़ने के लिये मजबूर किया गया। हालाँकि इस तरह के दबाव और धमकियों के बावजूद भी वो अपने लक्ष्य से नहीं भटके और सामाजिक बुराईयों के खिलाफ लड़ते रहे और इसके खिलाफ लोगों में चेतना फैलाते रहे।
• 1851 में इन्होंने बड़ा और बेहतर स्कूल शुरु किया जो बहुत प्रसिद्ध हुआ। वहाँ जाति, धर्म तथा पंथ के आधार पर कोई भेदभाव नहीं था और उसके दरवाजे सभी के लिये खुले थे।
• ज्योतिबा फुले बाल विवाह के खिलाफ थे साथ ही विधवा विवाह के समर्थक भी थे; वे ऐसी महिलाओं से बहुत सहानुभूति रखते थे जो शोषण का शिकार हुई हो या किसी कारणवश परेशान हो इसलिये उन्होंने ऐसी महिलाओं के लिये अपने घर के दरवाजे खुले रखे थे जहाँ उनकी देखभाल हो सके।
अछूतों के लिए अप्रतिम शैक्षिक कार्य :
अपने संकल्प को मूर्त रूप देते हुए ज्योति राव ने सर्वप्रथम १ जनवरी, १८४८ को ‘बुधवार पेठ’, पूना में तात्या साहब भिडे की हवेली में बालिका विद्यालय की स्थापना की । वह किसी भी भारतीय द्वारा स्थापित देश का पहला बालिका विद्यालय था । उनके समाज ने उन्हें अपने समाज के लिए किए जा रहे सद्कार्यों के लिए ‘बा’ की उपाधि दी ।
इस तरह वे ज्योति राव फुले से ‘ज्योतिबा’ फुले कहलाए । ज्योतिबा की पत्नी सावित्रीबाई फुले उस विद्यालय की पहली शिक्षिका बनीं । इस प्रकार भारत की प्रथम महिला शिक्षिका होने की गर्व-गरिमा अर्जित की । इस विद्यालय को विधिवत् संचालित करने में फुले दंपती को अदम्य साहस और जीवटता का परिचय देना पड़ा ।
तथाकथित ब्राह्मण-वर्ग ने उनके इस कार्य का प्रत्येक स्तर पर विरोध किया और उन्हें अपमानित किया, पर वे अपने संकल्प-मार्ग पर किंचित् विचलित नहीं हुए । १५ मई, १८४८ को फुले दंपती ने अस्पृश्यों के लिए देश में प्रथम पाठशाला की स्थापना की । इससे दलितों-पतितों तथा अस्पृश्यों और महिला-समाज को शिक्षा के साथ प्रत्यक्ष रूप से आबद्ध कर दिया गया ।
दूसरी ओर, गर्हित और संकीर्ण मानसिकतावाला ब्राह्मण तथा उच्च समुदाय ज्योतिबा फुले और सवित्रीबाई फुले के इन लोकमंगलकारी कार्यों का उग्र विरोध करने लगा । इन समुदायों ने ज्योतिबा के पिता गोविंद राव को डरा-धमकाकर पति-पत्नी को घर से बाहर निकलवा दिया । अनेक समस्याओं और कठिनाइयों के कारण ज्योतिबा को एक बार अपना विद्यालय बंद करना पड़ा ।
अपने जैसी विचार-भावनाओंवाले अपने ब्राह्मण मित्र सदाशिव राव गेवंडे और मुंशी गफ्तार बेग की सहायता से कुछ ही दिनों बाद उन्होंने अपने विद्यालय में अध्यापन कार्य पुन: आरंभ कर दिया । उनके ब्राह्मण मित्रद्वय-सदाशिव राव गोवंडे और विष्णुपंत गत्ते ने उनके विद्यालय में कुछ दिनों तक अध्यापन कार्य भी किया ।
१९ नवंबर, १८५२ को ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन ने पुणे महाविद्यालय के प्राचार्य मेजर कंठी के द्वारा एक भव्य समारोह में २०० रुपए का महावस्त्र और श्रीफल प्रदान कर ज्योतिबा का सम्मान किया । सन् १८५२ में ही ज्योतिबा ने दलितों-पतितों के लिए एक वाचनालय की स्थापना भी की ।
इसके पूर्व वाचनालय की व्यवस्था मात्र उच्च जातियों के लिए थी १७ फरवरी, १९५२ को उनके विद्यालय में विद्यार्थियों की खुली परीक्षा ली गई । उस समय सैकड़ों की संख्या में स्त्री-पुरुष एकत्र थे । सन् १८५५ में, ज्योतिबा ने देश के प्रथम संध्याकालीन विद्यालय की स्थापना की ।
१७ अक्तूबर, १८५७ को उनके विद्यालय का निरीक्षण-कार्य आरंभ हुआ । प्रख्यात वैयाकरण और मराठी स्कूलों के विभागीय सचिव दादोबा पांडुरंग तरबंडकर निरीक्षक थे । दादोबा ज्योतिबा के विद्यालयों का अनुशासन, वहाँ की शिक्षा-पद्धति तथा विद्यार्थी और शिक्षक समुदाय की परस्पर आत्मीयता को देखकर हतप्रभ रह गए । इतना आनंददायी वातावरण !
वे कल्पना भी नहीं कर सकते थे । उन्होंने अपनी परीक्षण-पंजिका में ज्योतिबा के विद्यालयों की गति-प्रगति की शानदार टिप्पणी की । ज्योतिबा का विद्यालय थोड़े ही समय में अत्यंत लोकप्रिय हो गया । विद्यार्थियों की संख्या तीव्र गति से बढ़ती जा रही थी; स्थान की कमी होती जा रही थी । ज्योतिबा को नया विद्यालय खोलने के लिए कोई हिंदू जमीन देने को तैयार नहीं था ।
अंत में पुराने विद्यालय की गली में एक मुसलमान-परिवार ने ज्योतिबा को विद्यालय बनवाने के लिए अपनी जमीन दे दी । ३ जुलाई, १८५७ को बुधवार पेठ, पूना के निवासी अन्ना अण्णा साहब चिपलूणकर के विशाल भवन में ज्योतिबा ने मात्र बालिकाओं के लिए एक विद्यालय में अध्ययन-अध्यापन का कार्य आरंभ कराया ।
अपने ढंग का यह विद्यालय ‘भारत का प्रथम’ विद्यालय था । फुले दंपती ने ये सारे कार्य बिना कोई शुल्क लिये किए । ज्योतिबा ने सन् १८६३ में एक ‘बाल हत्या प्रतिबंधक’ की स्थापना की । कोई भी विधवा वहाँ जाकर अपने बच्चे को जन्म दे सकती थी । उसका नाम और उसकी देखभाल गुप्त रखी जाती थी ।
२४ सितंबर, १८७३ को स्थापित ‘सत्य शोधक समाज’ के ज्योतिबा प्रथम अध्यक्ष और कोषाध्यक्ष बने । इस समाज का एकमात्र उद्देश्य था- ‘अस्पृश्यों पर होनेवाले धार्मिक और सामाजिक अन्याय या विरोध’ । ‘सत्य शोधक समाज’ की निम्नलिखित मान्यताएँ थीं-
१. भक्त और भगवान् के बीच किसी ‘बिचौलिये’ की कोई आवश्यकता नहीं ।
२. बिचौलियों द्वारा लादी गई धार्मिक दासता को नष्ट करना ।
३. सभी जातियों के स्त्री-पुरुषों को शिक्षा उपलब्ध कराना ।
ज्योतिबा ने दलितों-पतितों, किसानों, श्रमिकों तथा अन्य सर्वहारा वर्ग की दबी आवाज को उभारने के उद्देश्य से जनवरी १८७७ में एक साप्ताहिक समाचार-पत्र का प्रकाशन और संपादन शुरू किया । उस समाचार-पत्र का नाम ‘दीनबंधु’ था । उन्होंने किसानों और श्रमिकों की संतोषजनक स्थिति और उनकी उपयुक्त साँगों के लिए उन्हें एकजुट होकर संघर्ष करने के लिए प्रेरित, शिक्षित और संगठित किया ।
ज्योतिबा के प्रयासों से उन दिनों किसानों और श्रमिकों के हितों की रक्षा तथा ‘सत्यशोधक समाज’ के प्रचार के लिए ‘अंबालहरी’, ‘दीनमित्र’, तथा ‘किसानों का हिमायती’ नामक समाचार-पत्र प्रकाशित किए गए । सन् १८८२ में तत्कालीन अंग्रेजी सरकार ने ‘हंटर कमीशन’ भेजा । ‘हंटर कमीशन’ के अध्यक्ष सर विलियम हंटर थे । यह आयोग भारत में शिक्षा-व्यवस्था की दशा और दिशा की जानकारी प्राप्त करने के लिए गठित किया गया था ।
१९ अकबर, १८८२ को ज्योतिबा ने ‘हंटर कमीशन’ के समक्ष लिखित रूप में अपना वक्तव्य दिया था । उसमें उन्होंने निम्नलिखित विषय-बिंदुओं पर विशेष रूप से बल दिया था-
I. ग्रामीण क्षेत्रों के लिए स्वतंत्र शिक्षा-व्यवस्था हो ।
II. गणित, इतिहास, भूगोल, व्याकरण का प्रारंभिक ज्ञान कराया जाए ।
III. कृषि संबंधीं हर तरह का ज्ञान दिया जाए ।
IV. सामान्य ज्ञान, नीति तथा आरोग्य का ज्ञान भी दिया जाए ।
सन् १८८३ मे उन्होंने ‘सत्सार’ नामक एक लघु पुस्तक का प्रणयन किया । यह वही पुस्तक थी, जिसमें ज्योतिबा ने हिंदू-कर्मकांड में निहित गर्हित, गलित और संकीर्ण मान्यताओं-परंपराओं पर युक्ति-युक्त कुठाराघात किया था । उन्होंने अपनी पुस्तक ‘किसान का कोड़ा’ में किसानों में व्याप्त अंधविश्वास, रूढ़िवादिता, धर्मभीरुता, साहूकारों की अतिवादिता तथा अन्यान्य विसंगतियों पर समुचित प्रकाश डाला है ।
ज्योतिबा के ६१ वर्ष तथा सामाजिक व सार्वजनिक जीवन के ४० वर्ष प्रे करने पर मई १८८६ में एक विशाल जनसमुदाय के मध्य इस युगपुरुष को ‘महात्मा’ की उपाधि से समलंकृत किया गया । जुलाई १८८८ में ज्योतिबा पक्षाघात से पीड़ित हो गए ।
उनके शरीर का दायाँ भाग निष्क्रिय हो गया । फिर भी उनकी सक्रियता बनी रही । उन्होंने बाएँ हाथ से ही लिखकर अपनी पुस्तक ‘सार्वजनिक सत्य-धर्म’ को अंतिम रूप दिया । दिसंबर १९८८ में वे पुन: पक्षाघात के शिकार हो गए । अंतत: २८ नवंबर, १८९० को उनका देहावसान हो गया ।
ज्योतिबा की कोई संतान नहीं थी । उन्होंने एक विधवा ब्राह्मणी के पुत्र को ‘दत्तक पुत्र’ के रूप में अंगीकार किया । वही बालक डॉ. यशवंत राव आगे चलकर ज्योतिबा का उत्तराधिकारी बना । भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू ने बंबई में ‘फुले तांत्रिक माध्यमिक विद्यालय’ का उद्घाटन करते हुए महात्मा ज्योतिबा फुले की पुण्य स्मृति में कहा था:
“जिस जमाने में महात्मा फुले ने स्त्री और शूद्र-शिक्षा के प्रसार तथा अस्पृश्यता निवारण के लिए तीव्र संघर्ष किया, वह जमाना बहुत कठिन था ।”
ऐसे कार्यों के लिए कहीं से सहायता मिलना संभव नहीं था । भारतीय लोकतंत्र में स्त्री, दलित-शोषित, किसान तथा श्रमिकों की जैसे-जैसे उन्नति होगी वैसे-वैसे महात्मा फुले का व्यक्तित्व अधिकाधिक उभरकर सामने आएगा । महाराष्ट्र के एक किसान परिवार में जनमे महात्मा फुले देश में सामाजिक क्रांति के अग्रदूत रहे हैं ।
गांधीजी उन्हें ‘सच्चा महात्मा’ कहा करते थे तथा उन्हें अपना प्रेरणा-स्रोत मानते थे । बाबा साहेब अंबेडकर उनके सामाजिक दर्शन से प्रभावित ही नहीं थे बल्कि उन्हें भगवान् बुद्ध और कबीर गुरुओं के साथ अपना ‘तीसरा गुरु’ मानते थे ।”